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चने की उन्नत खेती- सम्पूर्ण जानकारी (Advanced cultivation of Gram – complete information)

क्या आप जानते हैं कि हमारा भारत चने (gram) का सबसे बड़ा उत्पादक है? जी हाँ, दुनिया का 75% चना हमारे देश में पैदा होता है! दलहनी फसलों में चना (gram) सबसे खास है, चाहे इसे कितनी भी ज़मीन पर बोया जाए या कितना भी उत्पादन हो।

उत्तर भारत, मध्य भारत और दक्षिण भारत के किसान इसे रबी की फसल के रूप में उगाते हैं। अगर हमारे किसान भाई चने उगाने के नए-नए तरीके अपनाएँ और अच्छी क्वालिटी के चने के बीज का इस्तेमाल करें, तो वे अपनी चने की पैदावार को और भी ज़्यादा बढ़ा सकते हैं। इससे अधिकतम संभावित पैदावार और अभी जो पैदावार हो रही है, उसके बीच का अंतर भी कम हो जाएगा।

चने की उन्नत खेती

चना की खेती में उपज का अंतर (Yield Gap in Gram Farming)


जलवायु और बारिश (Best Climate for Chana Cultivation)

चना (gram) आमतौर पर रबी के मौसम में बिना सिंचाई के (बारिश पर निर्भर फसल के रूप में) उगाया जाता है। साल में 60 से 90 सेमी बारिश वाले क्षेत्र चने की खेती के लिए सबसे अच्छे हैं।


चना के लिए उपयुक्त भूमि (Soil for Gram Farming)

चने (gram) की फसल के लिए हल्की दोमट से चिकनी मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है। हालाँकि, अगर आपकी मिट्टी भारी है और उसमें जल निकास की उचित व्यवस्था है, तो आप वहाँ भी चने की खेती सफलतापूर्वक कर सकते हैं। चने के लिए और भी उपजाऊ भूमि की आवश्यकता होती है।

एक बात का ध्यान रखें, जड़ ग्रंथियों के अच्छे विकास के लिए मिट्टी में उचित वायु संचार बहुत ज़रूरी है, इसलिए चने को थोड़ी-सी ढेलेदार मिट्टी पसंद है। खेत तैयार करने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से और एक से दो बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करना पर्याप्त है।


चना (gram) के बुआई का समय (Best Sowing Time for Chana)

सही समय पर बुवाई किसान की पैदावार बढ़ा सकती है:

क्षेत्रअसिंचित क्षेत्रसिंचित क्षेत्र
उत्तरी भारतअक्टूबर का दूसरा सप्ताहनवम्बर का पहला सप्ताह
मध्य/दक्षिण भारतअक्टूबर का पहला सप्ताहअक्टूबर का दूसरा सप्ताह से नवम्बर का पहला सप्ताह

चना (gram) के बीज मात्रा (Seed Rate for Chana Farming)

चना लगते समय बीज की सही मात्रा में लगाना बेहद जरूरी है। सही मात्रा में बीज लगाने से पौधें की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।


चना के बुआई की विधि (Sowing Method)

चना के बुआई की विधि (Sowing Method)


चने की अंतरवर्तीय फसलें (Intercropping with Chana)

चने की खेती दूसरी फसलों के साथ करने से अधिक उत्पादन मिला है। कुछ सफल संयोजन:-

चनाअन्य फसल
6 लाइन चना4 लाइन गेहूं
6 लाइन चना2 लाइन सरसों
4 लाइन चना2 लाइन जौ
4 लाइन चना2 लाइन अलसी

चना-गेहूं प्रणाली सबसे ज्यादा लाभदायक मानी गई है।


चना के बीज उपचार: रोगों और कीटों से सुरक्षा (Seed Treatment)

चने के बीज का उपचार करना बहुत ज़रूरी है ताकि आपकी फसल रोगों और कीटों से बची रहे।


खाद और उर्वरक (Fertilizer Management in Gram Crop)

मिट्टी की जांच के आधार पर खाद और उर्वरक का प्रयोग करें। इन्हें अंतिम जुताई के समय हल के पीछे कुंडी बांधकर या खाद ड्रिल का उपयोग करके बीज की सतह से 2 सेमी और किनारे पर 5 सेमी की गहराई पर डालना सबसे अच्छा है।

पोषक तत्वमात्रा (किग्रा/हेक्टेयर)
नाइट्रोजन (N)15-20
फास्फोरस (P)50-60
पोटाश (K)20
गंधक (S)20
जिंक15-20 किग्रा जिन्क सल्फेट

जिन खेतों में जिंक की कमी है, वहां 15-20 किलो जिंक सल्फेट का इस्तेमाल करें।

नाइट्रोजन और फास्फोरस की जरूरत सभी मिट्टी में होती है। लेकिन पोटाश और जिंक का इस्तेमाल तभी करें जब मिट्टी की जांच में इनकी कमी का पता चले। नाइट्रोजन और फास्फोरस की जरूरत को एक साथ पूरा करने के लिए 100-150 किलो डाइ-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) का इस्तेमाल किया जा सकता है।

डीएपी (DAP) का प्रयोग: 100-150 किग्रा/हे. से नाइट्रोजन और फास्फोरस की पूर्ति के लिए जरूरी।


हर राज्य के लिए चने की अलग-अलग किस्में उपयुक्त होती हैं. नीचे दी गई तालिका में आपके राज्य के लिए सबसे अच्छी चने की किस्में देख सकते हैं:

राज्यदेशी किस्मेंकाबुली किस्में
आंध्रप्रदेशफूले जी. 95311, आई.सी.सी.वी. 32, क्रांति, एम.एन.के. 1आई.सी.सी.वी. 2, कॉक-2
बिहारके.पी., आई.सी.सी.वी. 37, फूले जी. 0517
मध्यप्रदेशजे.जी. 14, जे.जी. 226, जे.जी. 63, जे.जी.के. 3, जे.जी.के.1, जे.जी. 13, जे.जी. 11, कॉकर राज विजय 202 एवं 201, जे.जी. जे.जी. 130, जे.जी. 322, जे.जी. 218, के2
महाराष्ट्रए.के.जी. 9303-12, जाकी 9218, बी.डी., उज्जवल डब्लू.सी.जी. 10, जे.जी. 16पी.के.वी. काबुली 4, विराट, एन.जी. 797 (आकाश), दिग्विजय, फूले जी. 0517
पंजाबजी.एन.जी. 1958, जी.एल.के. 28127, पी.बी.जी. 5, पूसा 547, जी.एन.जी. 469, उदय, पूसा 362, राजस।एल. 551, एल. 550
राजस्थानआर.एस.जी. 974, आर.एस.जी. 902 (अरूणा), आर.एस.जी. 896 (अर्पण), आर.एस.जी. 991 (अर्पणा), आर.एस.जी. 807 (आभा), जी.एन.जी. 1488, जी. एन.जी. 421, प्रताप चना 1, आर.एस.जी.902 (अरूणा)एल. 550, कॉक 2
उत्तरप्रदेशजी.एन.जी. 1969, सी.एस.जे. 515, डब्लू.सी.जी. 3 (वल्लभ कलर चना), जी एन.जी. 1581, बी.डी.जी. 72पूसा 1003, कॉक 2, के 4, हरियाणा काबुली चना 2
उत्तराखंडआर.एस.जी. 963 (आधार), सी.एस.जी. 8962, पंत काबुली 1, फूले जी 9925-9 (राजस)
झारखंडके.डब्लू.आर. 108, के.पी.जी. 59, पंत जी. 114एच. के. 05-169
छत्तीसगढ़पूसा 391, पूसा 372, जे.एस.सी. 55, जे.जी.के. 1, जे.एस.सी. 56, आर.जी. 2918 (वैभव)फूले जी. 0517
पश्चिम बंगालअनुराधा, गुजरात चना 4, उदयपूसा 1003
तमिलनाडुएम.एन.के. 1, फूले जी. 95311, जे.जी.11को. 4

राज्यवार प्रजातियों की सूची बहुत लंबी है, कुछ प्रमुख नाम गए हैं।

और प्रजातियों की पूरी सूची सरकारी वेबसाइट पर देखें


सूक्ष्म पोषक तत्व (Micro-Nutrients in Chana Farming)

चने के फसल का सही पोषण के लिए गौण और सूक्ष्म पोषक तत्व भी बहुत ज़रूरी हैं:

गंधक (सल्फर)

जिंक

जिंक की मात्रा मिट्टी के प्रकार और उसकी उपलब्धता पर निर्भर करती है।

बोरॉन

मॉलिब्डेनम


चना के खरपतवार नियंत्रण (Weed Control in Chana Crop)

खरपतवारों से बचाव के लिए:


सिंचाई का समय (Irrigation Schedule)

भारी और चिकनी मिट्टी को छोड़कर, बाकी भूमियों में दो सिंचाई की ज़रूरत होती है:

  1. पहली सिंचाई: जब पौधों में शाखाएँ बनने लगें
  2. दूसरी सिंचाई: जब फलियों में दाना भर रहा हो

चना के कीट और रोग नियंत्रण (Pests & Disease Management)

चना के मुख्य कीट:

कटुआ (कटरपिलर) और फलीबेधक चने के मुख्य दुश्मन हैं।

फली छेदक या इल्ली या गिडार

यह इल्ली हरे रंग में पौधे को फली रहित कर देती है और जब दाना बनता है तो फली में छेद करके पूरा दाना खा जाती है। जब पौधे पूरी तरह से बढ़ जाते हैं, तो उनकी शाखाओं, पत्तियों के डंठल, पत्तियों और फूलों पर भूरे रंग के धब्बे दिखते हैं. शाखाएं और तना भी प्रभावित होता है, और आखिर में दाना टूट जाता है।

नियंत्रण:

कटुआ

यह दिन में मिट्टी के ढेलों के बीच छुपा रहता है और रात को पौधे को ज़मीन के स्तर से काटकर नुकसान पहुंचाता है। यह खाता कम है और नुकसान ज़्यादा करता है।

नियंत्रण:

चना के मुख्य रोग:

उकठा रोग, ग्रे-मोल्ड और झुलसा (एसकोकाइटा ब्लाइट), स्क्लेरोटीनिया ब्लाइट चने की प्रमुख बीमारियाँ हैं।

उकठा रोग के लक्षण

रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है. पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और तने के लंबे चीरे में तंबाकू के रंग की धारियां दिखती हैं। जड़ें काली पड़ जाती हैं और आखिर में पौधे सूख जाते हैं।

नियंत्रण:

ग्रे-मोल्ड

इस रोग का कवक मिट्टी में जीवित रहता है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में नम मौसम में यह तेज़ी से फैलता है। पौधे पर भूरे रंग की फफूंद जैसी वृद्धि इसका मुख्य लक्षण है।

नियंत्रण:

स्क्लेरोटीनिया ब्लाइट

यह रोग पौधों के तने पर असर डालता है. रोगी पौधा पहले पीला और फिर भूरा होकर मर जाता है।

नियंत्रण:

एस्कोकाइटा ब्लाइट

जड़ को छोड़कर पूरा पौधा प्रभावित होता है. शुरुआती अवस्था में जनवरी-फरवरी महीने में रोगी पौधों के तने, पत्तियों और फलों पर छोटे कत्थई रंग के धब्बे उभर आते हैं जो बाद में पीले हो जाते हैं. इनके कारण पौधे धीरे-धीरे सूख जाते हैं।

नियंत्रण:


शीर्ष कलिका तोड़ना / खुटाई / टॉपिंग (Nipping)

जब पौधा 15-20 सेंटीमीटर का हो जाए, तब उसकी ऊपरी शाखाओं को तोड़ना (Nipping) चाहिए। इस प्रक्रिया से पौधे की वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है और शाखाएं ज़्यादा फूटती हैं। इससे प्रति पौधे फूल और फलियों की संख्या बढ़ जाती है, जिससे पैदावार भी ज़्यादा होती है।


कटाई और मड़ाई (Harvesting & Threshing)

जब 70-80 प्रतिशत फलियाँ पक जाएँ और फलियों से कुछ दाने निकालकर दाँतों से काटें और कट-कट की आवाज़ सुनाई दे तो समझ लें कि चने की फसल कटाई के लिए तैयार है। जाँच की यह विधि पारंपरिक और सफल विधि है।

कटी हुई फसल को एक जगह इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिन तक सुखाएँ। सूखने के बाद बैलों या थ्रेसर की मदद से दानों को भूसे से अलग कर लें।

  1. जब 70-80% फलियां पक जाएं और बीज दांत से कट जाएं तो फसल काट लें।
  2. फसल को 4-5 दिन धूप में सुखाकर बैल या थ्रेसर से दाने अलग करें।

📦 भंडारण (Storage Tips)

किसी भी फसल के लिए भंडारण सही विधि से करना बेहद जरूरी होता है। कुछ भी त्रुटि होने पे फसल ख़राब हो सकता है जिससे किसान को आर्थिक हानि हो सकती है। इसलिए भंडारण से पहले कुछ बातों का ध्यान जरूर रखे। भंडारण के दौरान अनाज में नमी की मात्रा 10% से अधिक नहीं होनी चाहिए। भंडारण गृह में प्रति टन एल्युमिनियम फास्फाइड की 2 गोलियां रखने से भंडारण कीटों से सुरक्षा मिलती है। भंडारण के दौरान चने को अधिक नमी से बचाना चाहिए।


📊 चना की औसत उपज (Average Yield)


चना की सबसे अच्छी किस्म कौन सी है? | Best Chana Variety in India

भारत में चना की कई उन्नत किस्में हैं जो अधिक उपज देती हैं और बीमारियों के प्रति प्रतिरोधी होती हैं। प्रमुख किस्में हैं:
1. बीजी 256 (छोटे बीज वाला)
2. बीजीडी 72 (ज्यादा उत्पादन वाला)
3. काक 2 (रोग प्रतिरोधक)
4. आरजीजी 963
5. डब्ल्यूजी 32
इन किस्मों का चुनाव जलवायु और मिट्टी के अनुसार करें।

चने की बुवाई कब करें? | Chana Ki Buwai Ka Sahi Samay

चना की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर से नवंबर के बीच होता है।
1. तापमान: 25°C – 30°C
2. बुवाई की गहराई: 6–8 सेमी
3. कतार से कतार दूरी: 30–40 सेमी

चने की उपज बढ़ाने के तरीके | Chana Yield Increase Tips

चना की उपज बढ़ाने के लिए निम्न उपाय अपनाएं:
1. बीज उपचार करें (Trichoderma + Rhizobium)
2. संतुलित NPK उर्वरक का प्रयोग करें
3. सही समय पर सिंचाई और निराई-गुड़ाई करें
4. रोगों का समय पर नियंत्रण करें

चने की खेती के लिए कौन-सी मिट्टी उपयुक्त है?

चना की खेती के लिए काली दोमट (Black Loamy Soil) सबसे उपयुक्त मानी जाती है।
1. pH मान: 6 से 7.5
2. मिट्टी में जल निकासी अच्छी होनी चाहिए
3. बलुई दोमट और मटियार भूमि भी उपयुक्त है

चने की खेती में कौन-कौन सी बीमारी आती है और उसका इलाज क्या है? Chickpea Diseases & Control

चना फसल में निम्नलिखित बीमारियाँ आती हैं:
1. उकठा रोग (Wilt) – इलाज: Trichoderma से बीज उपचार
2. पत्ती झुलसा (Leaf Blight) – इलाज: Mancozeb 75 WP का छिड़काव
3. गेरुआ रोग (Rust) – इलाज: Sulphur 80% WP का छि ड़काव

चना की सिंचाई कैसे करें? Chana Mein Sinchai Kab aur Kaise ?

चना को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती।
1. पहली सिंचाई: बुवाई के 30–35 दिन बाद (फूल निकलने पर)
2. दूसरी सिंचाई: फली बनने के समय
ध्यान रखें कि अत्यधिक पानी से फसल को नुकसान होता है।

चने की फसल कितने दिनों में तैयार होती है?

चना की फसल सामान्यतः 90 से 120 दिन में तैयार हो जाती है।
यह किस्म, जलवायु और खेती की तकनीक पर निर्भर करता है।

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