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भारत में खरीफ फसलों (Kharif Crops) में जहाँ धान (Rice) प्रमुख है, वहीं रबी फसलों (Rabi Crops) में गेहूं (Wheat) को सबसे मुख्य माना जाता है। दुनिया भर में अगर अनाज की खेती की बात करें तो मक्का (Maize) के बाद गेहूं दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है, जबकि धान तीसरे स्थान पर आता है।

भारत में गेहूं (Wheat) की खेती मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सबसे अधिक की जाती है। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन (Food Grain Production) में गेहूं का योगदान लगभग 37% है, जो इसे भारत की सबसे अहम फसलों में शामिल करता है।
गेहूं में प्रोटीन (Protein) की मात्रा अन्य अनाजों की तुलना में काफी ज्यादा होती है, इसलिए इसे पोषक और ऊर्जावान भोजन के रूप में जाना जाता है। यही कारण है कि इसकी मांग भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लगातार बनी रहती है।
लगातार बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए गेहूं (Wheat) की पैदावार और उत्पादकता में लगातार सुधार करना बेहद जरूरी है। अच्छी फसल पाने के लिए गेहूं की सही समय पर सिंचाई करना आवश्यक होता है। चूँकि सर्दियों में भारत में बारिश बहुत कम होती है, इसलिए किसानों को सिंचाई के लिए नलकूप, कुएं या नहरों जैसे अन्य साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
इसी समस्या को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और इसके विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिकों ने ऐसी नई गेहूं (Wheat) की किस्में विकसित की हैं जो कम पानी में भी अधिक उत्पादन देने में सक्षम हैं।
बेहतर उत्पादन के लिए केवल अच्छी किस्में ही नहीं, बल्कि नई खेती तकनीकें (Modern Farming Methods) और संतुलित इनपुट प्रबंधन (Efficient Input Management) भी जरूरी हैं। इससे खेती की लागत घटेगी और लाभ में बढ़ोतरी होगी।
इसी दिशा में, किसान समाधान आपके लिए असिंचित क्षेत्रों (Rainfed Areas) में गेहूं की सफल खेती से जुड़ी उपयोगी जानकारी लेकर आया है, ताकि किसान भाई कम पानी में भी अच्छी पैदावार ले सकें।
कम पानी या बारानी (Rainfed) क्षेत्रों में गेहूं की खेती
भारत के कई हिस्सों में ऐसे इलाके हैं जहाँ सिंचाई की सुविधा सीमित होती है या बारिश पर ही खेती निर्भर रहती है वहाँ गेहूं (Wheat) की औसत पैदावार (Yield) आमतौर पर सिंचित क्षेत्रों की तुलना में कुछ कम रहती है। कई परीक्षणों से यह बात सामने आई है कि बारानी या असिंचित इलाकों में गेहूं के बजाय राई, जौ और चना जैसी फसलें अधिक लाभदायक साबित होती हैं। फिर भी, ऐसे क्षेत्रों में भी किसान गेहूं की खेती सफलतापूर्वक कर सकते हैं, बशर्ते कि वे उपयुक्त किस्मों (Suitable Varieties) और सही खेती तकनीकों (Farming Practices) को अपनाएँ।
इसके लिए अक्टूबर में, जब मिट्टी में पर्याप्त नमी (Moisture) हो, बुवाई (Sowing) करनी चाहिए। यदि अक्टूबर–नवंबर के दौरान अच्छी बारिश हो जाए, तो गेहूं (Wheat) की फसल के लिए यह समय सबसे अनुकूल होता है।
बारानी या असिंचित परिस्थितियों (Unirrigated Conditions) में गेहूं (Wheat) की फसल को सफल बनाने के लिए मिट्टी का चुनाव, समय पर बुवाई, उचित बीज मात्रा, और नमी संरक्षण पर विशेष ध्यान देना जरूरी होता है।
अगर किसान कम पानी में उगने वाली उन्नत किस्में अपनाएँ और मल्चिंग, खरपतवार नियंत्रण जैसी तकनीकें इस्तेमाल करें, तो बिना नियमित सिंचाई के भी अच्छी उपज (Better Yield) प्राप्त की जा सकती है।
इस प्रकार, थोड़ी समझदारी और वैज्ञानिक पद्धति अपनाकर असिंचित क्षेत्रों में भी गेहूं की खेती किसानों के लिए लाभदायक और टिकाऊ विकल्प साबित हो सकती है। नीचे असिंचित क्षेत्रों में गेहूं की खेती से जुड़ी कुछ अहम बातें दी गई हैं —
- असिंचित क्षेत्रों में खेत की तैयारी
- गेहूं (Wheat) की असिंचित विकसित किस्में
- बीज की मात्रा एवं बुआई
- खाद एवं उर्वरक की मात्रा
- गेहूं (Wheat) में सिंचाई
- खरपतवार प्रबंधन
- गेहूं (Wheat) की फसल में लगने वाले मुख्य कीट एवं रोग
असिंचित क्षेत्रों में खेत की तैयारी कैसे करें (Moisture Conservation Tips for Rainfed Areas)

बारानी या असिंचित इलाकों में गेहूं (Wheat) की अच्छी फसल के लिए मानसून की आखिरी बारिश का पूरा फायदा उठाना बहुत जरूरी होता है। जब बरसात का मौसम खत्म होने लगे, तभी से खेत की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए ताकि मिट्टी की नमी (Soil Moisture) लंबे समय तक बनी रहे।
ऐसे क्षेत्रों में बार-बार जुताई (Repeated Ploughing) करने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि ज्यादा जुताई करने से मिट्टी की नमी उड़ जाती है और फसल पर असर पड़ सकता है। इसलिए, शाम के समय जुताई करें ताकि रातभर मिट्टी में ठंडक और नमी बनी रहे। फिर अगली सुबह पाटा (Leveling) लगाकर खेत को समतल कर दें। इससे नमी का संरक्षण बेहतर होता है और फसल की शुरुआती वृद्धि भी अच्छी रहती है।
इस तरीके से किसान बिना अतिरिक्त सिंचाई के भी मिट्टी में मौजूद नमी को लंबे समय तक बचा सकते हैं, जिससे गेहूं (Wheat) की असिंचित खेती अधिक सफल और लाभदायक बनती है।

भूमि उपचार
- मिट्टी और बीज से फैलने वाले रोगों का नियंत्रण (Soil & Seed Borne Disease Control): अगर गेहूं (Wheat) की फसल को कंडुआ (Loose Smut) या करनाल बंट (Karnal Bunt) जैसी बीमारियों से बचाना है, तो खेत की मिट्टी को पहले से तैयार करना जरूरी है। इसके लिए जैव कवकनाशी (Bio-Fungicide) जैसे ट्राइकोडर्मा विरिडी (Trichoderma viride) 1% WP या ट्राइकोडर्मा हारजिएनम (Trichoderma harzianum) 2% WP का उपयोग करें।
- लगभग 2.5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा को 60–75 किलोग्राम अच्छी सड़ी गोबर की खाद में अच्छी तरह मिलाएँ, फिर उसमें थोड़ा पानी का छींटा देकर छाया में 8–10 दिन तक रख दें। इसके बाद बुवाई से पहले आखिरी जुताई (Final Ploughing) के समय इसे खेत में मिला दें। यह तरीका मिट्टी में मौजूद हानिकारक फफूंद और रोगाणुओं को नष्ट करने में मदद करता है और फसल को स्वस्थ रखता है।
- सूत्रकृमि (Nematode) से बचाव: अगर खेत में सूत्रकृमि (Root Knot Nematode) की समस्या हो, तो कार्बोफ्यूरान 3G (Carbofuran 3G) का प्रयोग करना फायदेमंद होता है।
इसे 10–15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पहले समान रूप से खेत में बुरक दें और फिर हल्की जुताई कर दें। इससे कीट नियंत्रण प्रभावी ढंग से होता है और फसल की जड़ें मजबूत बनती हैं।
गेहूं की असिंचित विकसित किस्में (Drought-Tolerant Wheat Varieties for Rainfed Areas):-
देश के भारतीय कृषि वैज्ञानिकों (Indian Agricultural Scientists) ने अलग-अलग मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए गेहूं (Wheat) की कई उन्नत और उपयुक्त किस्में (Improved Wheat Varieties) विकसित की हैं। किसान भाई अपने इलाके की मिट्टी, तापमान और वर्षा के अनुसार सही किस्म चुनें, ताकि उन्हें बेहतर उत्पादन और गुणवत्ता मिल सके।
किसान चाहें तो अपने जिले के कृषि विभाग या कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) से संपर्क करके यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि उनके क्षेत्र में कौन-सी गेहूं की किस्में (Wheat Verity) सबसे उपयुक्त रहेंगी।
इसके अलावा, देश में गेहूं (Wheat) में लगने वाले प्रमुख रोगों से बचाव के लिए भी कई रोग-रोधी (Disease Resistant) किस्में तैयार की गई हैं, जो फसल को सुरक्षित रखती हैं और उत्पादन में स्थिरता बनाए रखती हैं।
नीचे कुछ ऐसी विकसित गेहूं (Wheat) की किस्में और उनकी खासियतें दी जा रही हैं, जिनका चयन किसान भाई अपने क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुसार कर सकते हैं।
- 1. पूसा व्हीट 3237 (HD 3237):- 2019 में विकसित यह किस्म उच्च उत्पादन वाली है। औसत उपज लगभग 48 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 145 दिनों में तैयार हो जाती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. होती है। यह किस्म पीला और भूरे रस्ट रोगों से प्रतिरोधी है और बेहतरीन चपाती क्वालिटी देती है।
- 2. WH-1142:- 2015 में जारी यह किस्म सुखा सहनशील और रस्ट प्रतिरोधी है। औसत उपज 48.1 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 150–156 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है। यह पीला और भूरे रस्ट तथा उच्च तापमान सहिष्णु है।
- 3. AAIW-10:- 2018 में विकसित यह किस्म लीफ रस्ट, लीफ ब्लाइट और सैटिरिंग के प्रति प्रतिरोधी है। औसत उत्पादन 45–50 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 120–125 दिनों में पकती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है और यह तापमान सहिष्णु भी है।
- 4. K-402 (माही):- 2013 में जारी यह किस्म तापमान सहिष्णु और रस्ट रोग प्रतिरोधी है। फसल 120–125 दिनों में पकती है। औसत उपज 43 क्विंटल/हेक्टेयर है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. होती है। यह उच्च तापमान वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
- 5. RAJ-4120:- 2009 में विकसित यह किस्म स्टेम रस्ट प्रतिरोधी है। औसत उत्पादन 47 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 119 दिनों में तैयार हो जाती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है। यह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, असम और पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
- 6. पूसा व्हीट 1612 (HD 1612):- 2018 में जारी यह किस्म तापमान सहिष्णु और पीला व भूरे रस्ट प्रतिरोधी है। औसत उपज 37.6 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 125 दिनों में पकती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. होती है।
- 7. DBW-110:- 2015 में विकसित यह किस्म भूरा और ब्लैक रस्ट तथा करनाल बंट प्रतिरोधी है। औसत उपज 39 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 110–134 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है।
- 8. के-9644:- 2000 में जारी यह किस्म आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के लिए उपयुक्त है। औसत उपज 35–40 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 105–110 दिनों में पकती है। पौधे की ऊँचाई 95–110 से.मी. होती है।
- 9. मंदाकिनी (K-9351):- 2004 में विकसित यह किस्म 115–120 दिनों में तैयार होती है। औसत उपज 30–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। पौधे की ऊँचाई 95–110 से.मी. है। यह मध्यम जलवायु और असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
- 10. मगहर (K-8027):- 1989 में विकसित यह किस्म कंडुआ और झुलसा रोग प्रतिरोधी है। औसत उपज 30–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 140–145 दिनों में पकती है। पौधे की ऊँचाई 105–110 से.मी. है।
- 11. इन्द्रा (K-8962):- 1996 में जारी यह किस्म 90–110 दिनों में तैयार हो जाती है। औसत उत्पादन 25–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। पौधे की ऊँचाई 110–120 से.मी. होती है। यह कम पानी में भी उपज देने वाली किस्म है।
- 12. गोमती (K-9465):- 1998 में विकसित यह किस्म उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त है। औसत उपज 28–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 90–110 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 90–100 से.मी. होती है।
- 13. एच.डी.आर.-77:- 1990 में जारी यह किस्म असम, बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है। औसत उपज 25–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 105–115 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 90–95 से.मी. होती है।
- 14. एच.डी.-2888:- 2005 में विकसित यह किस्म रतुआ रोग प्रतिरोधी है। औसत उपज 30–35 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 120–125 दिनों में पकती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है।
- 15. के-1317:- 2018 में विकसित यह किस्म भूरा रस्ट और लीफ ब्लाइट प्रतिरोधी है। औसत उपज 30.1 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 125 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है।
- 16. NW-4018 (नरेन्द्र गेहूं 4018):- 2014 में जारी यह किस्म सभी रस्ट रोगों के प्रति प्रतिरोधी है। औसत उपज 18.3 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 123 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. है।
- 17. MP-3288 (JW-3288):- 2011 में विकसित यह किस्म लीफ और ब्लैक रस्ट प्रतिरोधी है। औसत उपज 23.2 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 121 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. होती है।
- 18. WH-1080:- 2011 में जारी यह किस्म लीफ रस्ट, लीफ ब्लाइट और फ्लेक स्मट के प्रति अवरोधी है। औसत उपज 30.8 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 151 दिनों में तैयार होती है।
- 19. MP-3173 (JW-3173):- 2009 में विकसित यह किस्म रस्ट रोगों के प्रति उच्च प्रतिरोधी है। औसत उत्पादन 25.7 क्विंटल/हेक्टेयर है। फसल 128 दिनों में तैयार होती है। पौधे की ऊँचाई 100–110 से.मी. होती है।
गेहूं की अन्य विकसित किस्में-
JW-17, JW-3020, JW-3173, JW-3211, JW-3269, JW-3288, HI-1500, HI-1531, HI-1544, HI-8627 (कठिया), HD-4672 (कठिया), HI-153
बीज की मात्रा एवं बुआई
संस्तुत गेहूं (Wheat) की किस्मों की बुवाई अक्टूबर के मध्य से लेकर नवंबर की शुरुआत तक तब करें, जब जमीन में पर्याप्त नमी हो। बीज की मात्रा लगभग 100 किग्रा प्रति हेक्टेयर रखें। बुवाई करते समय बीज को 23 सेमी की दूरी पर कूंडों में डालें और सुनिश्चित करें कि बीज के ऊपर मिट्टी की परत 4–5 सेमी से ज्यादा न हो। इस तरह से बोने पर बीज अच्छी तरह अंकुरित होते हैं और फसल का उत्पादन बेहतर रहता है।
गेहूँ (Wheat) के बीज शोधन और रोग नियंत्रण के उपाय
- अनावृत कण्डुआ और करनाल बंट रोगों से बचाव:
बीज शोधन के लिए थीरम 75% W.S. की 2.5 ग्राम, या कार्बेन्डाजिम 50% W.P. की 2.5 ग्राम, या कार्बाक्सिन 75% W.P. की 2 ग्राम, या टेबूकोनाजोल 2% D.S. की 1 ग्राम प्रति किग्रा बीज का उपयोग करें। बीज को इन दवाओं से अच्छे से मिलाकर बुवाई से पहले शोधन करना चाहिए। - बीज रोग ग्रसित होने पर नमक घोल विधि:
गेहूँ (Wheat) के बीज को रोग मुक्त करने के लिए 2% नमक के घोल (200 ग्राम नमक को 10 लीटर पानी में घोलकर) में कुछ समय तक भिगोएँ। इस दौरान हल्के और रोगग्रस्त बीज तैरकर ऊपर आ जाते हैं। तैरते हुए बीज को अलग कर नष्ट कर दें। इसके बाद बीजों को साफ पानी से 2–3 बार धोकर सुखा लें, फिर बुवाई के लिए इस्तेमाल करें। - बीज और प्रारम्भिक भूमि जनित रोगों से बचाव:
बीज शोधन के लिए कार्बाक्सिन 37.5% + थीरम 37.5% D.S./W.S. की 3 ग्राम प्रति किग्रा बीज मिलाकर बुवाई से पहले उपचार करें। इससे अनावृत कण्डुआ, अन्य बीज जनित और शुरुआती भूमि जनित रोगों से बचाव होता है।
खाद और उर्वरक का उपयोग

बारानी परिस्थितियों में गेहूँ (Wheat) की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर लगभग 40 किग्रा नत्रजन (Nitrogen), 30 किग्रा फॉस्फेट (Phosphate) और 30 किग्रा पोटाश (Potash) इस्तेमाल करें। यह पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज के 2–3 सेमी नीचे, कूंडों में, नाई या चोगें, या फर्टीड्रिल की मदद से डालनी चाहिए।
यदि बाली निकलने से पहले बारिश हो जाती है, तो अतिरिक्त 15–20 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर देने से लाभ होता है। अगर वर्षा नहीं होती है, तो 2% यूरिया का पर्णीय छिड़काव किया जा सकता है, जिससे फसल को पर्याप्त पोषण मिलता है।
असिंचित खेत में गेहूं (Wheat) की सिंचाई
असिंचित क्षेत्रों में यदि तीन बार सिंचाई की सुविधा हो, तो इसे ताजमूल अवस्था, बाली निकलने से पहले और दुग्धावस्था में करें। अगर केवल दो बार सिंचाई संभव हो, तो इसे ताजमूल और पुष्पावस्था में दें। और यदि सिर्फ एक बार सिंचाई संभव हो, तो इसे ताजमूल अवस्था में ही करें।
ऊसर या पानी जल्दी सूखने वाली जमीन में पहली सिंचाई बुवाई के 28–30 दिन बाद करनी चाहिए। इसके बाद बाकी सिंचाई हल्की और जल्दी-जल्दी करके मिट्टी की नमी बनाए रखना जरूरी है, ताकि फसल को पर्याप्त पानी मिलता रहे और मिट्टी सूखने न पाए।

सरकारी योजनाएँ और सहायता | Government Schemes and Support
- सीड ड्रिल और पैडी ड्रिल मशीन पर सब्सिडी उपलब्ध
- कृषि विभाग द्वारा प्रशिक्षण और डेमो प्लॉट
- ऑनलाइन जानकारी: भारत सरकार कृषि पोर्टल
- प्रेस इनफार्मेशन सरकारी रिलीज
गेहूँ (Wheat) की फसल में खरपतवार प्रबंधन
गेहूँ की फसल में खरपतवार दो प्रकार के होते हैं –
1. सकरी पत्ती वाले खरपतवार: गेहूँसा, जंगली जई।
2. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार: बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी–मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि।
सकरी पत्ती वाले खरपतवार का नियंत्रण:
बुवाई के 20–25 दिन बाद सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए निम्नलिखित हर्बिसाइड का उपयोग करें। रसायन को लगभग 500–600 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर में घोलकर फ्लैटफैन नॉजल से छिड़काव करें।
- आइसोप्रोट्यूरान 75% W.P. – 1.25 किग्रा/हे.
- सल्फोसल्फ्यूरान 75% W.G. – 33 ग्राम (2.5 यूनिट)/हे. (पानी 300 लीटर से ज्यादा न हो)
- फिनोक्साप्राप–पी इथाइल 10% E.C. – 1 लीटर/हे.
- क्लोडीनाफाप प्रोपैर्जिल 15% W.P. – 400 ग्राम/हे.
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार का नियंत्रण:
बुवाई के 25–30 दिन बाद निम्नलिखित हर्बिसाइड का उपयोग करें। रसायन को लगभग 500–600 लीटर पानी में घोलकर फ्लैटफैन नॉजल से छिड़काव करें।
- 2–4डी मिथाइल एमाइन साल्ट 58% S.L. – 1.25 लीटर/हे.
- कर्फेंन्टाजॉन मिथाइल 40% D.F. – 50 ग्राम/हे.
- 2–4डी सोडियम साल्ट 80% टेक्निकल – 625 ग्राम/हे.
- मेट सल्फ्यूरान इथाइल 20% W.P. – 20 ग्राम/हे.
सकरी और चौड़ी पत्ती दोनों खरपतवार एक साथ नियंत्रित करना:
यदि फसल में दोनों प्रकार के खरपतवार मौजूद हों, तो निम्नलिखित हर्बिसाइड का उपयोग करें। रसायन को 300 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर में घोलकर फ्लैटफैन नॉजल से छिड़काव करें।
- पेंडीमेथलीन 30% E.C. – 3.30 लीटर/हे. (बुवाई के 3 दिन के अंदर)
- सल्फोसल्फ्यूरान 75% W.P. – 33 ग्राम/हे. (बुवाई के 20–25 दिन बाद)
- मैट्रीब्युजिन 70% W.P. – 250 ग्राम/हे. (बुवाई के 20–25 दिन बाद)
- सल्फोसल्फ्यूरान 75% + मेट सल्फ्यूरान मिथाइल 5% W.G. – 40 ग्राम/हे. (बुवाई के 20–25 दिन बाद)
- क्लोडीनोफाप 15% W.P. + मेट सल्फ्यूरान 1% W.P. – 400 ग्राम/हे. को 12.5 मिली सर्फेक्टेंट और 375 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
इस तरह से सकरी और चौड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवारों को समय पर नियंत्रित करने से गेहूँ की फसल स्वस्थ रहती है और उत्पादन बढ़ता है।
गेहूँ (Wheat) की फसल में प्रमुख रोग और नियंत्रण
गेहूँ (Wheat) में बीमारियाँ, कीट और सूत्रकृमियों के कारण आमतौर पर 5–10% तक उपज की कमी हो जाती है। इसके अलावा दानों और बीज की गुणवत्ता भी खराब होती है। इससे लागत बढ़ती है और उत्पादन कम होने से किसानों की आय पर भी असर पड़ता है। इसलिए बीज उपचार और रोग-प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग सबसे महत्वपूर्ण होता है।
गेहूँ की फसल में जो रोग सबसे अधिक देखे जाते हैं, उनमें शामिल हैं:
- पर्ण रतुआ / भूरा रतुआ
- धारीदार रतुआ या पीला रतुआ
- तना रतुआ या काला रतुआ
- करनाल बंट / खुला कंडुआ / लूज स्मट
- पर्ण झुलसा / लीफ ब्लाइट
- चूर्णिल आसिता / पौदरी मिल्ड्यू
- ध्वज कंड / फ्लैग स्मट
- पहाड़ी बंट / हिल बंट
- पाद विगलन / फुट राँट
खड़ी फसल में अक्सर अल्टरनेरिया, गेरुई, रतुआ और ब्लाइट के प्रकोप से नुकसान होता है। उदाहरण के लिए:
- झुलसा रोग – पत्तियों पर पीले-भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में किनारों पर गहरे भूरे और बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं।
- नियंत्रण: मैन्कोजेब 2 किग्रा/हे. या प्रोपिकोनाजोल 25% E.C. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- गेरुई / रतुआ – भूरे, पीले या काले रंग के धब्बे पत्ती और तने दोनों में दिखाई देते हैं।
- नियंत्रण: मैन्कोजेब 2 किग्रा/हे. या जिनेब 25% E.C. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
यदि फसल में झुलसा, रतुआ और करनाल बंट तीनों रोगों का संदेह हो, तो प्रोपिकोनाजोल का छिड़काव करना आवश्यक है।
गेहूँ (Wheat) की फसल में प्रमुख कीट
गेहूँ की फसल में कई कीट आते हैं जो उत्पादन और दानों की गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करते हैं। प्रमुख कीट निम्नलिखित हैं:
1. दीमक (Termite):
दीमक एक सामाजिक कीट है और यह समूह में रहकर फसल को नुकसान पहुंचाता है। एक कॉलोनी में लगभग 90% श्रमिक, 2–3% सैनिक और एक रानी-राजा होते हैं। श्रमिक दीमक सफेद रंग के, पंखहीन और पीलेपन वाले होते हैं जो फसल की जड़ों और तनों को खाकर हानि करते हैं। दीमक नियंत्रण के लिए विशेषज्ञ की सलाह और तकनीकी उपाय अपनाने जरूरी हैं।
2. गुजिया विविल (Gujia Weevil):
यह कीट भूरे और मटमैले रंग का होता है और सुखी मिट्टी में दरारों और ढेलों में छिप जाता है। यह उग रहे पौधों को जमीन की सतह से काटकर नुकसान पहुंचाता है।
3. माहूँ (Aphid):
माहूँ छोटे हरे कीट होते हैं, जिनके शिशु और वयस्क दोनों पत्तियों और हरी बालियों का रस चूसते हैं। इससे पौधे कमजोर होते हैं और यह मधुश्राव (honeydew) छोड़ते हैं, जिस पर काली फफूंद लग जाती है। यह काली फफूंद प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) में बाधा डालती है और फसल की वृद्धि धीमी कर देती है।

गेहूँ में कीट नियंत्रण के उपाय
1. दीमक (Termite) नियंत्रण:
- बुआई से पहले: बीज को क्लोरपाइरीफॉस 20% E.C. या थायोमेथाक्सम 30% F.S. के 3 मिली प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन करें।
- जैविक उपाय: ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15% बायोपेस्टिसाइड को 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर, 60–70 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा दें और 8–10 दिन छाया में रखें। इसके बाद आखिरी जुताई पर मिट्टी में मिलाने से दीमक और अन्य भूमि जनित कीट नियंत्रित हो जाते हैं।
- खड़ी फसल में: दीमक और गुजिया नियंत्रण के लिए क्लोरपाइरीफॉस 20% E.C. की 2.5 लीटर मात्रा सिंचाई के पानी के साथ खेत में डालें।
2. गुजिया (Gujia) नियंत्रण:
- दीमक की तरह ही खड़ी फसल में क्लोरपाइरीफॉस 20% E.C. का उपयोग करें।
3. माहूँ (Aphid) नियंत्रण:
- रासायनिक उपाय: डाइमेथोएट 30% E.C., या आक्सीडेमेटन-मिथाइल 25% E.C. 1.0 लीटर, या थायोमेथाक्सम 25% W.G. 50 ग्राम, 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- जैविक विकल्प: एजाडिरेक्तिन (नीम तेल) 0.15% E.C. 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।
| कीट का नाम | फसल की अवस्था | नियंत्रण उपाय | मात्रा / दर | नोट्स |
|---|---|---|---|---|
| दीमक (Termite) | बुआई से पहले | बीजशोधन क्लोरपाइरीफास 20% E.C. या थायोमेथाक्सम 30% F.S. | 3 मिली/किग्रा बीज | बीज को छिड़ककर बोने से दीमक नियंत्रित होते हैं |
| दीमक (Termite) | बुआई से पहले | जैविक – ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15% | 2.5 किग्रा./हे. + 60–70 किग्रा. सड़ी गोबर की खाद | 8–10 दिन छाया में रखें, आखिरी जुताई में मिट्टी में मिलाएँ |
| दीमक / गुजिया | खड़ी फसल | क्लोरपाइरीफास 20% E.C. | 2.5 ली./हे. (सिंचाई पानी के साथ) | सिंचाई के पानी में मिलाकर डालें |
| माहूँ (Aphid) | खड़ी फसल | डाइमेथोएट 30% E.C. / ऑक्सीडेमेटन-मिथाइल 25% E.C. / थायोमेथाक्सम 25% W.G. | 1 ली./50 ग्राम / 50 ग्राम, 750 लीटर पानी में | पत्तियों और बालियों पर छिड़काव करें |
| माहूँ (Aphid) | खड़ी फसल | जैविक – एजाडिरेक्टिन (नीम तेल) 0.15% E.C. | 2.5 ली./हे. | पर्यावरण मित्र विकल्प, रसायन कम उपयोग करें |
सारांश (Summary)

| क्र. | विषय | विवरण | मात्रा / दर | समय / अवस्था | नोट्स |
|---|---|---|---|---|---|
| 1 | बीज | बुआई के लिए उपयुक्त विकसित किस्में (क्षेत्र अनुसार) | 100 किग्रा./हे. | अक्टूबर के द्वितीय पक्ष – नवम्बर के प्रथम पक्ष | बीज को 4–5 सेमी. मिट्टी से ढकें |
| 2 | बीज उपचार | अनावृत कण्डुआ, करनाल बंट, अन्य बीज जनित रोग नियंत्रण | थीरम 75% W.S. – 2.5 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 50% W.P. – 2.5 ग्राम / कार्बाक्सिन 75% W.P. – 2.0 ग्राम / टेबूकोनाजोल 2% D.S. – 1.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज | बुआई से पूर्व | बीज को 2–3 बार धोकर सुखा लें |
| 3 | उर्वरक | नत्रजन, फास्फेट, पोटाश | N – 40 किग्रा., P – 30 किग्रा., K – 30 किग्रा./हे. | बुआई के समय | बुआई के 2–3 सेमी. नीचे डालें; वर्षा न होने पर 2% यूरिया पर्णीय छिड़काव |
| 4 | सिंचाई | असिंचित खेत में | 1–3 सिंचाई (उपलब्धता अनुसार) | ताजमूल अवस्था, बाली निकलने से पहले, दुग्धावस्था | ऊसर भूमि में हल्की और जल्दी सिंचाई करें |
| 5 | खरपतवार नियंत्रण | सकरी पत्ती: गेहूँसा, जंगली जई; चौड़ी पत्ती: बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, हिरनखुरी, आदि | विभिन्न खरपतवारनाशी रसायन (जैसे: आइसोप्रोटयूरान, सल्फोसल्फ्यूरान, पेंडिमेथलीन, मेट्रिब्युजिन) | बुआई के 3–30 दिन बाद | पानी की मात्रा रसायन अनुसार रखें; फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करें |
| 6 | रोग नियंत्रण | पर्ण रतुआ / भूरा रतुआ, धारीदार रतुआ, कंडुआ, झुलसा, लीफ ब्लाइट, फ्लैग समट, हिल बंट, फुट राँट | मैन्कोजेब 2 किग्रा./हे. या प्रोपिकोनाजोल 25% E.C. – 0.5 ली./1000 ली. पानी | रोग प्रकोप पर | बीज उपचार और प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें |
| 7 | कीट नियंत्रण | दीमक, गुजिया, माहूँ | दीमक: बीजशोधन – क्लोरपाइरीफास 20% E.C. / थायोमेथाक्सम 30% F.S. – 3 मिली /किग्रा. बीज; खड़ी फसल – क्लोरपाइरीफास 2.5 ली./हे. | बुआई से खड़ी फसल तक | जैविक विकल्प: ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15% – 2.5 किग्रा./हे., एजाडिरेक्टिन (नीम तेल) 0.15% – 2.5 ली./हे. |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
गेहूं की कौन सी किस्में असिंचित क्षेत्रों में अधिक उपज देती हैं?
असिंचित क्षेत्रों में गेहूं की कुछ प्रमुख किस्में हैं:
के-8027 (मगहर): यह किस्म 140-145 दिनों में पककर तैयार होती है और प्रति हेक्टेयर 30-35 क्विंटल उपज देती है।
के-8962 (इन्द्रा): 90-110 दिनों में पककर तैयार होती है और प्रति हेक्टेयर 25-35 क्विंटल उपज देती है।
के-9465 (गोमती): 90-110 दिनों में पककर तैयार होती है और प्रति हेक्टेयर 28-35 क्विंटल उपज देती है।
के-9644: 105-110 दिनों में पककर तैयार होती है और प्रति हेक्टेयर 35-40 क्विंटल उपज देती है।
एच.डी.आर.-77: 105-115 दिनों में पककर तैयार होती है और प्रति हेक्टेयर 25-35 क्विंटल उपज देती है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में उच्च गुणवत्ता वाली चपाती देती हैं?
कुछ उच्च गुणवत्ता वाली चपाती देने वाली गेहूं की किस्में हैं:
पूसा व्हीट 3237 (एच.डी.3237): यह किस्म चपाती बनाने योग्य है।
के-9644: यह किस्म चपाती बनाने योग्य है।
राज-4120: यह किस्म चपाती बनाने योग्य है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में उच्च प्रोटीन वाली हैं?
कुछ उच्च प्रोटीन वाली गेहूं की किस्में हैं:
एच.डी.-2888: इसमें प्रोटीन की मात्रा 13.2% है।
के-9644: इसमें प्रोटीन की मात्रा 13.0% है।
राज-4120: इसमें प्रोटीन की मात्रा 12.5% है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में छोटे पौधों वाली हैं?
कुछ छोटे पौधों वाली गेहूं की किस्में हैं:
के-8962 (इन्द्रा): पौधे की ऊँचाई 110-120 से.मी. है।
के-9465 (गोमती): पौधे की ऊँचाई 90-100 से.मी. है।
के-9644: पौधे की ऊँचाई 95-110 से.मी. है।
एच.डी.आर.-77: पौधे की ऊँचाई 90-95 से.मी. है।
एच.डी.-2888: पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में कम समय में पकती हैं?
कुछ कम समय में पकने वाली गेहूं की किस्में हैं:
के-8962 (इन्द्रा): यह किस्म 90-110 दिनों में पककर तैयार होती है।
के-9465 (गोमती): यह किस्म 90-110 दिनों में पककर तैयार होती है।
के-9644: यह किस्म 105-110 दिनों में पककर तैयार होती है।
एच.डी.आर.-77: यह किस्म 105-115 दिनों में पककर तैयार होती है।
एच.डी.-2888: यह किस्म 120-125 दिनों में पककर तैयार होती है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में लम्बे समय तक पकती हैं?
कुछ लम्बे समय तक पकने वाली गेहूं की किस्में हैं:
डब्लू.एच.1142: यह किस्म 150-156 दिनों में पककर तैयार होती है।
डब्लू.एच.1080: यह किस्म 151 दिनों में पककर तैयार होती है।
राज-4120: यह किस्म 119 दिनों में पककर तैयार होती है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में उच्च उपज देती हैं?
कुछ उच्च उपज देने वाली गेहूं की किस्में हैं:
पूसा व्हीट 3237 (एच.डी.3237): यह किस्म प्रति हेक्टेयर 48.4 क्विंटल उपज देती है।
ए.ए.आई.डब्लू.-10: यह किस्म प्रति हेक्टेयर 45-50 क्विंटल उपज देती है।
डब्लू.एच.1142: यह किस्म प्रति हेक्टेयर 48.1 क्विंटल उपज देती है।
डी.बी.डब्लू.110: यह किस्म प्रति हेक्टेयर 39.0 क्विंटल उपज देती है।
राज-4120: यह किस्म प्रति हेक्टेयर 47.0 क्विंटल उपज देती है।
गेहूं की किस्मों में कौन सी किस्में रोग प्रतिरोधी हैं?
कुछ रोग प्रतिरोधी गेहूं की किस्में हैं:
के-9644: यह किस्म आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र के लिए उपयुक्त है।
एच.डी.आर.-77: यह किस्म असम, बिहार, पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
एच.डी.-2888: यह किस्म रतुआ अवरोधी है और असम, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
पूसा व्हीट 3237 (एच.डी.3237): यह किस्म पीला एवं भूरा रस्ट अवरोधी है और चपाती बनाने योग्य है।
पूसा व्हीट 1612 (एच.डी.1612): यह किस्म पीला एवं भूरा रस्ट अवरोधी है और ताप सहिष्णु है।

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